1 चर्चा की उपयोगिता, लोकतंत्र और चुनाव प्रक्रिया:


जब भी कोई नई बात आती है  वो सत्य तो होती है पर हमारी मान्यता से विरुद्ध होती है  तब हमको वह कड़वी लगती है.  बस ऐसा ही कुछ होता है  राजकारण की   चर्चाओंमें. यह लोकतंत्र या पूरी व्यवस्था गलत नीव पर खड़ी है और यही वजह से कोई भी पक्ष   भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है, और किसी भी पक्षने सरकारमें आने के बाद बहुत उत्तम  कह शके ऐसे कार्य नहीं किये है. यही वजहसे जब चर्चामे कोई मेरे पसंदीदा पक्षके बारेमें सत्य बात रखता है की जिसमे मेरे पक्षकी कमी दिखाई पड़ती है तो वो में सहन नहीं कर पाता. और उसको लेकर में भावुक होकर उसके बचावमे गलत बहेस करता हु, हास्यास्पद दलीले करता हु. जो सत्य सामने आया है उस सत्य के साथ चलने की हिम्मत बहोत कम लोगोमें होती है.

क्यूँ हम इतने निष्पक्ष नहीं हो शकते की हमारी खुदकी मान्यताके विरुद्ध जाकर सत्य को पाने की कोशिश कर शके? सत्य तक पहुचनेकी हिम्मत दिखा शके? फिर उसमे किसीका पक्ष लेने की बात ही नहीं आती. सत्य का पक्ष रखने के लिए जब में मेरे खुद का पक्ष भी नहीं ले रहा तो मेरे सगे संबंधी, मेरी जाती, मेरे धर्म, मेरे माने हुए राजकीय पक्ष या नेता की तरफदारी करनेका सवाल ही पैदा नहीं होता.


चर्चे होने हमेशा ही अच्छी बात है, क्यूँ की चर्चे करते वख्त प्रत्येक इंसान खूदका अभिप्राय, खुदने देखि हुयी, अनुभवमें ली हुयी, खूद अभ्यास की हुयी बात को चर्चामे रखता है. जो बात में चर्चामे रखता हु शायद उसका अभ्यास सबने ना किया हो तो वो बात रखने से बाकि लोगों को वह बात की माहिती मिल जाती है. वैसा ही मेरे साथ होता है की दुसरे लोग उनके अभ्यास से कुछ ऐसी बातें रखते है जिसे मेने कभी नहीं जाना होता है तो वो बात से में माहितगार हो जाता हु. कुल मिलाकर चर्चा सही चले तो चर्चाके अंतमे सारी हकीकते सामने आ जाती है, और वह सबसे उत्तम बात है क्यूँ की अब सत्य हमारे सामने होता है. बस, हममें अपनी खुदकी मान्यताको छोड़कर वह सत्यका हाथ पकड़ने की और वह रस्ते पर चलने की हिम्मत होनी चाहिए.

WhatsApp, Facebook या ऐसे कोई भी चर्चा के ऑनलाइन माध्यम हो, बात तो एक ही है की हकीकत सामने आने लगती है. पर बहुत लोग उस चर्चा का परिणाम, वह सत्यको स्वीकार नहीं करके, अपनी नामर्दगी बताते हुए, अपने घमंड की पुष्टि के लिए, अपने आपको सच साबित करने के लिए, सामनेवाले को गिराने के लिए, गलत सब्द्प्रयोग, और उलटपुलट बाते व् तर्क का प्रयोग करते है.

गर्व लेने जैसी बात हो तो ठीक है पर यहाँ जूठी बातोंका गर्व लेने के लिए तर्क का उपयोग और बहस होती है. अपनी कमी को छुपाने कोइ दुसरे पर आक्षेप किये जाते है.

यहाँ सत्य की जरुरत क्यूँ है?

यह मात्र किसी एक पक्षको प्रेम करने की बात नहीं है, या किसी नेताको सर पे बैठाने की बात नहीं है, वह कोई भी नेता या पक्ष हो शकता है. यहाँ सबके अच्छे मानवजीवन के लिए सही पसंदगी करनी है इसलिए सत्य की पहेचान करनी है.

जिसको हम गवर्मेंट या सरकार कहते है वो आखिर में है क्या?

यह विस्तृत जनसमुदायकी सार्वजनिक संपत्तिका जनसमुदायके हितमे संचालन करनेके लिए हम, कुछ लोगोको जिम्मेदारी देते है. वह हमारे गुलाम नहीं है ना हम उनके गुलाम है, पर यहाँ क्या हो रहा है? हम ही उनको सत्ताधारी कहते है मतलब की वह राजा और हम गुलाम? क्या मुर्खता है ये?

आपको खुद ही मुर्ख बनने का कैसे पसंद करते हो?  किसीको भी आप पर सत्ता भुगतने ना दो.

हमारे धर्मशास्त्रों का आखरी सन्देश मुक्ति, याने की मोक्ष यानि की स्वतंत्रता है. तो हमारी वह मुक्ति या स्वतंत्रताकी तरफ जानेकी कोशिस क्यूँ नहीं है? पहले कदम पर ही यह मानसिक गुलामी क्यूँ कर रहे है हम? और मानसिक गुलामी, बाकि हर तरीके की गुलामीमे परिवर्तित हो जाती है. जैसा बिज रहेगा वैसा वृक्ष बन जाता है.

वैसे तो सब लोग, में ये हूं, में वो हूं, कहकर अपने आपको राजा दिखाने की कोशिश करते हो, तो यह गुलामो जैसा बर्ताव क्यूँ?  मानवहितमें कुछ कार्य करना है तो जरुर करें, पर ये नाम के आगे जूठे उपनाम लगाकर कौन सा जनहित करोगे आप? यह तो खुदको मुर्ख बनाने की बात है, वास्तविक तौर पे तो आप कुछ भी काम नहीं कर रहे पर ये कुत्ते की तरह गले में गुलामीका पट्टा डाले हुए, कुत्तेकी तरह हड्डीको चूसते हुए, पेट भर जाने का संतोष ले रहे हो?


हम वह यूगमे है की जहां हमारे पास हर तरहकी माहिती सरलतासे प्राप्य है. तो यह किसी नेता या उसके चमचेके कहने से कोई भी बात, हकीकतों का अभ्यास किये बिना मान लेने की मुर्खता हम कैसे कर लेते है? खुद मुर्ख बनना और अंधभक्ति करना हमें कैसे मुनासिफ लगता है?

जागो जागो जागो !
अब कब तक मुर्ख बनते रहेंगे?
कब तक दुसरें लोगों को हमें मुर्ख बनाने देते रहेंगे?

हकिकतोंको जांचनेको पुख्ता समय दीजिए. क्यूँ हम किसीका कहा एक ही बार में मान लेते है? रुकें, अभ्यास करें, आपकी बुद्धि की पूरी कसरत करके उसको जांचे. कोई भी जाती, धर्म, संस्था, व्यक्ति, विचारधारा, पक्ष वगेरह का अनुसरण करने से पहले आप उसको हर रूप से, हर बातमें खुद गहेराई से अभ्यास कर शकते है तो फिर यह मानसिक गुलामी किस बात की?

जिन्हें हमने सरकार नाम दिया है उनकी एक बात, एक सामान्य निर्णय भी यह बहुत बड़ी आम जनता के जीवन को असर करता है. यह कितनी बड़ी जिम्मेदारी है. उसका थोड़ा सा भी दुरूपयोग नहीं होना चाहिए.
मोजुदा लोकतंत्र के संविधान के नियम मुताबिक हम प्रतिनिधि चुनते है. वह जिम्मेदारी निभाना शुरू करनेके बाद वह चाहे तो भ्रष्टाचार करे या खून करे या किये हुए चुनावी वादों के बिलकुल विरुद्ध काम करें तब भी हमें उसको ५ साल तक सहेना पड़ता है और यही तरीके से हम ७० सालों से बारी बारी से हर पक्ष और नेता को पुरे ५ साल तक कुछ न कुछ ख़राब करने दे रहे है. हर ५ साल के बाद हम ऐसे ही नये प्रतिनिधि को जिम्मेदारी देते है यह आशामे की वह कुछ ठीक करेगा. ऐसा क्यूँ? क्या आपके घरका नोकर चोरी करे तो उसको नौकरीमे से निकालने के लिए आप ५ साल तक इंतज़ार करते है? अगर आप अपने घरमे हुयी चोरीको सहेन नहीं कर शकते तो ये तो पुरे जनसमुदायके हित की बात है. इसे कैसे चला लेते है?

उनके लिए योग्य निर्णय लेने के रास्ते है ही. प्रदेशका संचालन भले ही आपको सोंपा गया है, पर जब हर एक निर्णय बड़ी संवेदनशीलता के साथ लेना है तो गलत आत्मविश्वास के साथ, जनता को विश्वासघात न हो इसलिए, बिना पुख्ता अभ्यास के कोई भी निर्णय न लिया जाए और हर निर्णय निष्पक्ष रूप से, सर्व के हितमे ही लिया जाए. उसके लिए थोड़े व्यक्ति ही नहीं पर जरुरत लगे तो समाजके दुसरे दूरद्रष्टा, बुद्धिमान और अध्ययनशील लोगोंको आपके साथमे जोड़कर उंनके साथ विचार विमर्श करके, बहु आयामी अभ्यास करके निर्णय लिया जाना चाहिए. यह शायद थोड़ी धीमी प्रक्रिया लगेगी पर जो भी निर्णय होगा वह ज्यादातर सर्वका हित करे ऐसा होने की पुर्णतः संभावना होगी. और शायद आपका निर्णय गलत साबित होता है तब भी आप उसका कारण बताने के लिए पूरी तरह से खुले रहेंगे. और उसके सुधारने के लिए आगे आ शकेंगे.

पर कोई भी पक्ष और नेता ऐसा नहीं कर रहा है. और यही वजह है की जब भी उनके निर्णयसे समाज का अहित होता है तो वो जवाब नहीं दे पाते और बचावमे गलत दलील और प्रत्यारोप करके अपनी गलती को छुपाते है. बहुत ही पारदर्शी बनकर संचालन करना और वैसा ही पारदर्शी जवाब देने का काम यह कोई भी संचालन करनेवाली व्यक्ति कर नहीं पायी है. सिर्फ गुमराह करने की बात होती है. चुनावके समयमे किये गए वादोंसे विश्वासमें आ चुकी जनता जिसको संचालन दे देती है, उनके संचालन शुरू करने के कुछ समय पश्चात ही वही जनता वो संचालनकर्ताओके सामने विरोध प्रगट करती हुयी दिखाई पड़ती है.

आज हम जहा पर भी है वह एक निश्चित ही क्रमिक प्रगति का परिणाम है. जिसमे सबकी भूमिका रही है. जो कुछ भी लोकहितके कार्य हुए है में उनका विरोध नहीं करता. आगे बताया उस तरीके से आपको जनहित का कार्य करने के लिए, आप वह जिम्मेदारी निभाने के काबिल है यह समजकर ही तो आपको वो जिम्मेदारी दी गयी थी. और अगर आप उसे सही तरीके से निभा रहे हो तो आप धन्यवाद के पात्र है. हमको लगेगा की हमने आपको यह जिम्मेदारी देकर सही निर्णय किया था. करोडो लोगोमे से सिर्फ आपको ही यह जिम्मेदारी दी गयी है तो आपको उसका मूल्य पता रहेना चाहिए. और आप कम से कम गलती के साथ पूर्ण जिम्मेदारी के साथ, पूरी पारदर्शिता के साथ उसका निभाव करेंगे और आपसे जनहित का कार्य होना ही चाहिये. अगर आप यह नहीं कर शकते तो आपमे इतनी प्रमाणिकता तो होनी ही चहिये की आप उसका खुलकर स्वीकार कर शके. और उस पद को छोड़ शके.

अगर आप सक्षम नहीं है तो यह जिम्मेदारीको न स्वीकारे या आगे बताया उस तरह से दूरद्रष्टा, बुद्धिमान और अध्ययनशील लोगोका सहयोग लेकर उसका संचालन करे. काफी निर्णय ऐसे होते है जिसमे आप जनता की राय भी ले शकते है. उसके तरीके भी है. पर इस तरह से मुर्ख बनानेका काम ना करें. लोगोंको नुकसान करनेका कार्य ना करें.

हमारे जैसे व्यक्ति आमने सामने बैठकर या ऑनलाइन माध्यमों के जरिये चर्चा करते है उस चर्चा का आखरी मतलब क्या है? चर्चे करके यह तय करना की योग्य क्या है? जब आप योग्य को यानि की सत्य को समझते है और सत्य का साथ देते है तब आप बड़े जनसमुदाय के उज्जवल भविष्य के लिए सही निर्णय करवाने के लिए सहायता कर शकते है.

हमारा सब का, यह चर्चा का आखरी लक्ष्य क्या है? सिर्फ आरोप प्रत्यारोप या और कुछ? सब को यह अच्छी तरीके से जान लेना चाहिए की हमारा लक्ष्य आरोप प्रत्यारोप नहीं है. या किसी एक नेता या पक्ष को आँखे बंध करके पकडे रहेना नहीं है. हमारा मूल विचार या लक्ष्य सब के लिए अच्छे मानव जीवनकी रचना करना है. उसके लिए यह बहुत बड़ी सार्वजनिक संपत्ति और जनसमुदायका योग्य संचालन करने योग्य व्यक्तिकी पसंदगी करना है.

क्या हम ऐसा कर पा रहे है?  क्या हमने पसंद किये हुए लोग जिसे हम सरकार कहते है वह पारदर्शीरूपसे, सूजबुज के साथ और दूरद्रष्टिके साथ यह बड़े जनसमुदाय और संपत्ति का व्यवस्थापन कर रहे है?

जनहित का कार्य करने का दिखावा हो रहा है या सही में जनहित का कार्य कर रहे है?


और जब भी जनहित का कार्य करने में असफल होते है, तब उतनी ही प्रमाणिकता और पारदर्शिता के साथ जनता की माफ़ी माँगते है? असफलता पर माफ़ी नहीं माँगते, प्रमाणिकता नहीं दिखा सकते तो समजो की वह प्रत्येक संचालनकर्ता कायर, नामर्द और नालायक है. दिए गए पद या जिम्मेदारी के लिए अयोग्य है.

आखिरमे यह तंत्र खड़ा करने का मतलब क्या है? तंत्र को जो भी नाम दो, लोकतंत्र या और कुछ, कोई भी विचारधारा को पकड़ो, उसका आखरी लक्ष्य क्या है? अंतिम लक्ष्य सब के लिए अच्छे जीवन की रचना करना है, क्या वो रहा है?

आपकी चर्चामे यह बातें न आई हो तो उसे सामिल करें. सोचे और सत्य तक पहुंचे. उसके बादमे ही निर्णय करें. उसके बादमे ही किसीको बड़ी जिम्मेदारी सोंपे.

चर्चा के दरमियाँ एक दुसरे से लड़ मरने से किसीका भला होगा? चर्चा का जो मतलब है वह सत्य तक पहुँचना है और उस तरीके से उसका उपयोग करना है.



अंतिम सार: चर्चा का लक्ष्य सत्य तक पहुचना है, और यह सत्य के आधार पर जो विचारधारा बने, जिससे मानवहित करनेवाली व्यवस्था खड़ी की जाये. वही चर्चा से सत्यको जानते हुए उसको संचालित करनेके योग्य व्यक्तिओंको जिम्मेदारी दी जाए. जिसका अंतिम लक्ष्य सब के लिए अच्छे जीवन का सर्जन करना व् बनाये रखना है.

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