वसुधैव कुटुम्बकम पत्रिका + Audio and Video Links

  प्रेम आधारित समाज  रचना - Gift Economy

वसुधैव कुटुम्बकम ( विश्व एक कुटुंब है )

वसुधैव कुटुम्बकम इस वाक्य को काफी लोग इस्तेमाल करते है पर कितने लोग सही में इसके मूल अर्थ को समजते है? कुछ लोग तो बिना समजे इस पर लम्बा भाषण भी देते है. वसुधैव कुटुम्बकम जो की मूल संस्कृत वाक्य है. ऋषि मुनिओने १००० साल से ज्यादा समय पहले इस विचार को या इस भावना को प्रस्तुत  किया था. यह भावना/विचार के अनुरूप लोग जिए और उसके आधारित समाज रचना बने तो ही इस जगतमे कायमी तौर पे सुख बना रहेगा.  पूरा विश्व एक कुटुंब की तरह कैसे जिए यह समजने के लिए जरुरी बातों को एक आदर्श कुटुंब की व्यवस्था की मदद से समजते है.  

 १. कुटुंब मे हर कोई अपना होता है : इस विश्वमे हम हमारे छोटे कुटुंब को छोड़कर किसीको भी अपना नहीं मानते. अपने कुटुंब और समाज की और से सीधा या अप्रत्यक्ष रूप से हमें दूसरो को अपने नहीं मानने का सिखाया जाता है. यह मेरा, वह तेरा ऐसे स्पष्ट भेद दिखाए जाते है. ऐसे ही दुसरे अनेक प्रकार के भेद हमको समजाए जाते है, जैसे की, जातिवाद, ईश्वरवाद, धर्मवाद, प्रदेशवाद, राष्ट्रवाद वगेरह. में सिख हु, वह ख्रिस्ती है ( धर्मवाद ); में शिवभक्त हु, वह कृष्णभक्त है ( ईश्वरवाद ); में बेंगाली हु, वह राजस्थानी है    ( प्रदेशवाद ); मेरी भाषा ही श्रेष्ठ है ( भाषावाद ); में भारतीय हु, वह पाकिस्तानी है ( राष्ट्रवाद ). यह सारे वाद एक भ्रम के अलावा कुछ भी नहीं जो हम सब को एक दुसरे से अलग करते है. मनुष्य के तौर पे हम सब एक समान है. सब के शरीर में एक जैसा लाल लहू बहता है. सब को खाना-पीना व् सोना पड़ता है. सब को एक जैसी जन्म-मरण, बाल-यौवन-वृध्दावस्था, बीमारी वगेरह अवस्थाओ से गुजरना पड़ता है. सब को एक जैसी भावनाए मिली है. सब को बुध्धि और शरीर बल मिला है. सिख, ख्रिस्ती हिन्दू या मुसलमान आखिर तो है सब एक ही धरतीमाता के संतान है.  तो यह वादोमे से पैदा किये भेद को बनानेका कोई मतलब नहीं है. इस भेद के चश्मे को हमें आँखों पर से दूर करके हर मनुष्य को सिर्फ मनुष्य को तौर पे ही देखना पड़ेगा तब ही हम वसुधैव कुटुम्बकम को समज पायेंगे और उसको साकार करने आगे बढ़ेंगे.

२. कुटुंबमें कार्यका चयन समजदारी से होता है : एक कुटुंब के कार्यो क्षमता/कौशल, रूचि और जरुरत के मुजब समजदारी से बांट लिए जाते है. भारी वजन उठानेवाले या बहुत ज्यादा महेनत के कार्य कुटुंब के युवा पुरुष कर लेते है. आम तौर पे खाना पकाना कपडे धोना जैसे काम कुटुंब की महिलाए कर लेती है. उसमे कोई बड़ा या छोटा काम ऐसा नहीं होता. कोई भी मालिक या नौकर नहीं होता. जरुरत के मुताबिक कार्य की फेरबदल भी कर ली जाती है. यह पुरे विश्व की व्यवस्था भी विविध कार्यों से चलती है. पर इस आर्थिक व्यवस्था में कार्य को सिर्फ रुपये कमाने के उद्देश्य से ही किया जाता है. जिस के लिए कभी काफी जरुरी कार्य भी अगर रूपये नहीं कमा के देता तो हम नहीं करते. और बहुत सारे कार्य जिसकी सामाजिक या व्यक्तिगत तौर पे कोई भी अहेमियत न हो फिर भी अगर उससे रुपये मिलते हो तो हम कर लेते है. जिसका बुरा परिणाम यह है की विश्व के ५०% से ज्यादा लोग खुद को नापसंद हो ऐसे काम/नोकरी/धंधे में जुटे है. वास्तविक रुपमे सबसे जरुरी कार्यो को सब से पहली अहेमियत देनी चाहिए. उसके बाद प्रत्येक इंसान को वह कार्य करना चाहिए जिसमे उसकी सब से ज्यादा रूचि और कौशल हो. जो कार्य उनकी व्यक्तिगत अनन्यता के अनुरूप हो. और उसके तहत पुरे विश्व के कार्यो को बांटकर कर लेना चाहिए. जो की वर्त्तमान आर्थिक/सामजिक व्यवस्थामे नहीं हो रहा. इतने प्रगत विश्व में भी ज्यादातर लोग न अनन्यता को समजते है न खुद की रूचि/कुशलता को समजते है. सिर्फ स्पर्धा को समजते है. >>> जो लोग अपनी खुद की अनन्यता/रूचि/कौशल को समजते है उनमे से ज्यादातर लोग वो काम नहीं कर पा रहे क्यूँ की ये आर्थिक ढांचा उनको बाधा बन रहा है. मुझे वृक्षों के प्रति लगाव है, पर वृक्ष संवर्धन या वृक्ष उगाने के कार्य से मुझे रूपया नहीं मिलेगा तो में वो कार्य नहीं करूँगा. 

३. कुटुंब में वस्तुए बेची नहीं जाती : एक कुटुंब में कुछ खास व्यक्तिगत वस्तुओ को छोड़कर सारी वस्तुए सबके लिए होती है. कुटुंब में कोई भी चिज बेचनेमे नहीं आती. आपने कभी सुना है की किसी पिताने अपने बेटे को अपना घर या जमीन बेची हो? कभी सुना है की किसी पत्नीने पति से घरका काम करनेके, भोजन तैयार करने के या कपडे धोने के रुपये मांगे हो? कुटुंब में सारे कार्य समजदारी और जिम्मेदारी से कर लिए जाते है औए वस्तुए जरुरत के मुजब एकदूसरे को दी जाती है या बांट दी जाती है. आज के विश्व में अपने छोटे परिवार के बहार हम अपनी क्षमता, कौशल, बुद्धि या वस्तुओको नौकरी या धंधे के जरिये से बेचते है. हम ऐसे समाजमे है जहां हर इंसान व्यक्तिगत मल्कियत बनाकर बैठा है और वह प्रत्येक मल्कियत को तभी छोड़ता है जब कोई सामने उसकी किमत चुकाए. काफी लोग प्रसिद्धि पाने के लिए वस्तुए देते है, मतलब की प्रसिद्धि पाने की कीमत वस्तुओ के रुपमे चुकाते है. यह व्यवस्था का परिणाम यह है की एक तरफ चीजे पड़ी रहती है तो दूसरी तरफ जरुरत वाले को चीजे मिल नहीं रही. रुपियों के आधार पर चलती ये धंधे की व्यवस्था से विश्वमे अनेक समस्याओं का सर्जन हुआ है जिसका अनुभव हम हररोज करते है. वहां तक की यह चीज एक छोटे कुटुंब को भी नहीं छोड़ती. पति-पत्नी के सम्बंधोमे दहेज़ प्रथा का दुष्परिणाम, रुपिया/मल्कियत के कारण ही हमने कई सालों तक देखा है. आज दो सगे भाई रूपया-संपत्ति के व्यवहार की वजह से अलग होते है और कई किस्सों में उनमे मारामारी और कोर्ट केस भी हो जाते है. कर्ज बढ़ जाने से काफी लोग आत्महत्या करते है. गरीब-अमीर के बिचमे बनी दुरी को हम में से प्रत्येक हर रोज अनुभव करते है. सत्ता-मल्कियत, रूपया और बेचने की यह व्यवस्था से पैदा हुई समस्याओं पर एक १००० पन्ने का पुस्तक लिखे तो भी कम पड़ेगा. यह व्यवस्था को तोड़ना जरुरी है.

4. प्रेम की सत्ता : सत्ता दो तरह की हो शक्ति है. क) प्रेम की सत्ता, ख) डर और कायदे की सत्ता. एक आदर्श कुटुंब में होती है प्रेम की सत्ता. जब की पुलिस और सरकार से फैलती है डर और कायदे की सत्ता. ज्यादा रुपियेवाले लोग रुपियों से संपत्ति खरीद/विकसाकर उस संपत्ति की रखेवाली करने को ख़रीदे हुए/नौकर पहेलवान/चौकीदार बैठाकर हम को डर व् कायदे की सत्ता दिखाते है. ऐसी बंधी बड़ी जमीन हम कई बार बिना उपयोग की पड़ी हुयी या सिर्फ कुछ लोगों का भला करती हुयी देखते है. कितने ही मकान व् दूकान बिना उपयोग के ताला लगे हुए सालों से पडे हुए नजर आते है. यह मोजुदा आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था की रितमे कभी भी सबका भला नहीं हो शकता और अपनापन विकसित नहीं हो शकता. जिससे कभी भी वसुधैव कुटुम्बकम साकार नहीं हो शकता.

सत्ता अगर हो तो प्रेम की सत्ता हो. वसुधैव कुटुम्बकम वह प्रेम की सत्ता है. प्रेम की सत्ता स्वयं प्रगट होती है. जो दिल पर राज करती है. जो हुकम और डर से नहीं चलती. वह प्रेम की ताकत से चलती है. प्रेम में हर कार्य अपने आप होता है. हर किसी को में अपना समजू और हर कोई मुझे अपना समजे तो वहां हमारे बिच कोई अंतर नही रहे जाता. पृथ्वी ऊपर दुसरे मनुष्यों से संपत्ति की रखेवाली करने की जगह प्रेम से बंधे हम सब लोग सामूहिक तौर पे उसका उस तरीके से उपयोग कर सकते है जिससे हर किसी का भला हो. वर्तमान आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था प्रत्येक का भला कर शके ऐसी नहीं है. ऐसी सत्ता का निर्मूलन करना जरुरी है या उसका प्रेम की सत्तामे रूपांतरण करना जरुरी है. मनुष्यों की ज्यादातर समस्याओं को समजदारी और प्रेम से हल किया जा शकता है. मनुष्यों की व्यवहारिक समस्याओं के लिए डर और कायदे की जरुरत नहीं है.

वर्तमान आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था की मर्यादा और बंधन में अनेक सामाजिक संस्थाए और व्यक्तिगत शुभ भावनावाले लोग कार्य कर रहे है फिर भी प्रत्येक का भला नहीं हो पा रहा. परिस्थिति और भी ज्यादा बिगड़ती जा रही है. अगर यह व्यवस्था को ऐसे ही चलते जाने दिया तो उसके कितने भयानक दुष्परिणाम या कहो कलियुग आयेगा, उसको कभी सोच के देखिए. हम समजदारी दीखाए तो हम खुद ही सतयुग को ला शकते है.

विश्व में कायमी सुख के स्थापन के लिए हम सब को वसुधैव कुटुम्बकम के आधार पर सामाजिक व्यवस्था खडी करनेकी जरुरत है.  जिसके लिए एक छोटे से आदर्श कुटुंबमें हम जिस तरीके से जीते है उस तरह से हमें विश्व के सारे लोगों के साथ में जीना पड़ेगा. विश्वमे सब का भला हो ऐसी नयी सही व्यवस्था लागु हो इसलिए काफी लोग प्रयास कर रहे है. और उन लोगो ने उस व्यवस्था को अपने हिसाब से विविध नाम दिए है. जैसे की Gift Economy, Resource Based Economy, Sacred Economics और Moneyless World वगेरह. Google और Youtube पर इन नामों से खोजने पर आपको यह विषय की काफी सारी माहिती मिल जाएगी. इस विषय पर ज्यादा माहिती पाने के लिए इस विषय के पुस्तकों को eb55.blogspot.com/2018/10/eb.html/ वेबलिंक से डाउनलोड करे शकते है. जिसमे एक हिंदी पुस्तक भी है. जिसमे इस प्रेम आधारित समाज व्यवस्थाकी जरुरत और उसके स्वरूप को थोड़ा और विस्तार से बताया है. 


प्रेम के आधार पर समाज रचना बनने से 

डर का प्रेम में,
             तनाव का आनंद में, 
                                शर्तों का विश्वास में, 
                                                 स्पर्धा का सहकार में और
 कमी का समृद्धिमे रूपांतर हो जाता है. 

जिससे कुछ इस तरह के मानव समाज का निर्माण होगा की पृथ्वी का हर इंसान अच्छी जिंदगी जी शके.

To Listen Audio of this Patrika click on this : वसुधैव कुटुम्बकम 

To listen it on Youtube : https://youtu.be/t8CK8HeGhaY


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